एक सुबह डाकिए ने हमारा द्वार खटखटाया
द्वार खुलते ही उसने एक लिफाफा हमें थमाया
लिफा़फ़े को खोलकर हमने जैसे ही ख़त को पढ़ा
हमारा दिमाग सच मानिए सातवें आसमान पर चढ़ा
लिफाफे में नौकरी हेतु "बुलावा-पत्र" था
जाना अगले ही सत्र था।
ये सोचकर कि खुशखबरी पड़ोसी शर्माजी को सुनाएं
वो ज्योतिषी हैं शायद आगे का हाल बताएं।
सो हम झट जा पहुंचे शर्मा जी के घर,
खटखटाया उनका दर।
प्रणाम करके हमने फरमाया,
नौकरी हेतु "बुलावा-पत्र" है आया।
ज़रा पत्री देखकर बताईए
क्या है ग्रहों की माया।
शर्मा जी ने ऐनक चढ़ा;पत्री को जांचा,
फिर हमारी ओर देख के फलित बांचा।
कहा-"कविवर! समझ लीजिए इतना ग्रह दशा का सार
कुछ दिनों में होगा कोई ना कोई चमत्कार।
इतना सुनते ही हमारे चेहरे की रंगत खिली,
ऐसा लगा मानो जैसे अंधे को दो आंखें मिलीं।
हमने सोचा कि जब "चमत्कार" ही होना है,
फिर व्यर्थ क्यूं परेशां होना है।
इतना विचार करते ही
"बुलावा-पत्र" दिया फाड़;
फिर झाड़ू से दिया झाड़,
और करने लगे "चमत्कार" का इंतज़ार।
जब महीनों में भी कुछ परिवर्तन ना आया,
व्रतान्त सुना शर्माजी को तीखे स्वर में फरमाया-
यूं मिथ्या भाषण करते लाज ना आपको आई,
पड़ोसी होकर आपने हम पर गाज गिराई।
हमारे क्रोध का ना हुआ उन पर कोई असर,
अत्यंत शान्त स्वर में उन्होंने दिया उत्तर,
कहा-"कविवर! मिथ्या भाषण हमने ना
जीवन में कभी किया है;
ना ही झूठा आश्वासन कभी किसी को दिया है,
और रही बात चमत्कार की; वह तो हो चुका,
इस मंहगाई के दौर में जो आजीविका ठुकराए,
आप ही कहें क्या इसे "चमत्कार" कहा ना जाए।
-हेमन्त रिछारिया
द्वार खुलते ही उसने एक लिफाफा हमें थमाया
लिफा़फ़े को खोलकर हमने जैसे ही ख़त को पढ़ा
हमारा दिमाग सच मानिए सातवें आसमान पर चढ़ा
लिफाफे में नौकरी हेतु "बुलावा-पत्र" था
जाना अगले ही सत्र था।
ये सोचकर कि खुशखबरी पड़ोसी शर्माजी को सुनाएं
वो ज्योतिषी हैं शायद आगे का हाल बताएं।
सो हम झट जा पहुंचे शर्मा जी के घर,
खटखटाया उनका दर।
प्रणाम करके हमने फरमाया,
नौकरी हेतु "बुलावा-पत्र" है आया।
ज़रा पत्री देखकर बताईए
क्या है ग्रहों की माया।
शर्मा जी ने ऐनक चढ़ा;पत्री को जांचा,
फिर हमारी ओर देख के फलित बांचा।
कहा-"कविवर! समझ लीजिए इतना ग्रह दशा का सार
कुछ दिनों में होगा कोई ना कोई चमत्कार।
इतना सुनते ही हमारे चेहरे की रंगत खिली,
ऐसा लगा मानो जैसे अंधे को दो आंखें मिलीं।
हमने सोचा कि जब "चमत्कार" ही होना है,
फिर व्यर्थ क्यूं परेशां होना है।
इतना विचार करते ही
"बुलावा-पत्र" दिया फाड़;
फिर झाड़ू से दिया झाड़,
और करने लगे "चमत्कार" का इंतज़ार।
जब महीनों में भी कुछ परिवर्तन ना आया,
व्रतान्त सुना शर्माजी को तीखे स्वर में फरमाया-
यूं मिथ्या भाषण करते लाज ना आपको आई,
पड़ोसी होकर आपने हम पर गाज गिराई।
हमारे क्रोध का ना हुआ उन पर कोई असर,
अत्यंत शान्त स्वर में उन्होंने दिया उत्तर,
कहा-"कविवर! मिथ्या भाषण हमने ना
जीवन में कभी किया है;
ना ही झूठा आश्वासन कभी किसी को दिया है,
और रही बात चमत्कार की; वह तो हो चुका,
इस मंहगाई के दौर में जो आजीविका ठुकराए,
आप ही कहें क्या इसे "चमत्कार" कहा ना जाए।
-हेमन्त रिछारिया
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