शुक्रवार, 16 मई 2008

तुझे कैसे मै सजांऊ

तेरे माथे पे जो चमक सके
वो बिंदिया कहां से लाऊं
तेरे नयनों में जो दमक सके
वो कजरा कहां से लाऊं
तेरी ज़ुलफ़ों को जो बांध सके
वो गजरा कहां से लाऊं
ए मेरे मनमीत तुझे कैसे मै सजाऊं

तेरे होंठों पे जो निखर सके
वो लाली कहां से लाऊं
तेरे गालों पे जो बिखर सके
वो सुरखी कहां से लाऊं

तेरे हाथों में जो खनक सके
वो कंगन कहां से लाऊं
तेरे पैरों में झनक सके
वो पायल कहां से लाऊं
ए मेरे मनमीत तुझे कैसे मै सजाऊं

तेरे तन पे जो महक सके
वो चंदन कहां से लाऊं
तेरे खुशबू जिसमे समा सके
वो मधुबन कहां से लाऊं
तेरा रूप जिनम समा सके
वो अखियां कहां से लाऊं
ए मेरे मनमीत तुझे कैसे मै सजाऊं

मंगलवार, 13 मई 2008

मेरा अकेलापन

इंसानों की भीड़ में ना जाने
कहां खो गया मेरा बचपन
रह गया मैं और मेरा अकेलापन

ना ही जी पाया मै अपनी तरूणाई
ना ही जीत सका किसी का मन
बिन तस्वीर रह गया मेरे मन का दरपण
अपने ही विचारो में उलझता;सुलझता
करता अपने आप से ही अनबन
रह गया मै और मेरा अकेलापन

मह्त्वाकांछाओं के इस दौर में
बनाता अपनी पहचान
खोजता;तलाशता अपनी मंज़िल
मेरा व्यथित मन
उम्मीद है होगा एक दिन मिलन
कल जहां था आज भी वहीं है
मै और मेरा अकेलापन

सोमवार, 12 मई 2008

हाईकु

पीर दिल की
कहने बह चले
नि:शब्द आंसू

एक इशारा
जिसपे दिल हारा
तुम्हारा ही था

हो गई विदा
जग से; पर हुआ
महामिलन

कैसा विरोध
राम रहीम कौन
ज़रा सा बोध

सरिता मांगे
अपना हिस्सा आज
खामोश व्योम

कैसा लगता
सपनों के शहर
आकर तुम्हे