बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

मेले में मज़ा नहीं आया...


रौनक थी बड़ी; हमें कुछ नहीं भाया,
मेले में मज़ा नहीं आया।

चहल-पहल;धक्का-मुक्की;रेलमपेल,
ऊँचे-ऊँचे झूले, बच्चों की रेल,
माँ के हाथों सा ना किसी ने झुलाया
मेले में मज़ा नहीं आया...

खाई आलू चाट; पी कोकाकोला,
ली ठंडी सोफ़्टी, चूसा बर्फ़ का गोला,
पहले जैसा स्वाद नहीं किसी में आया।
मेले में मज़ा नहीं आया...

मँहगे-मँहगे सामानों पे धावा बोला,
खूब की खरीददारी भरा अपना झोला,
खिलौनों का वो सुख मगर नहीं पाया।
मेले में मज़ा नहीं आया...


देखो ये बच्चे कैसे इठलाते हैं
मेले में आते ही खुश हो जाते हैं
हम चालीस पार अब हुए जाते हैं
दर्पण देख आज समझ ये आया
मेले में मज़ा ’क्यों’ नहीं आया।

कवि-पं. हेमन्त रिछारिया






मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

संहार पर मजबूरी है


घाव जब नासूर बन जाए, गहन उपचार ज़रूरी  है,
शान्त अहिंसक भाव हमारा, संहार पर मजबूरी है।

रगों में शोणित उबला, रिपुओं का मस्तक लाने को,
देखें चंगुल से ग्रीवा की, अब कितनी दूरी है।

क्षमाशील होने को कायरता क्यों समझ लिया,
आमन्त्रण है रणांगण में तैयारी अबकी पूरी है।

कट-कट कर यों अरि गिरें ज्यों पतझर पात पके झरें
बीत चली ये तिमिर निशा प्राची देखो सिन्दूरी है।

कवि-पं. हेमन्त रिछारिया