ओ रे कान्हा याद तेरी पल-पल तडपाए रे
मुझ बिरहन की हालत पे तोहे तरस ना आए रे
तेरी एक दरस की दीवानी हूं मैं तो
और तू ऐसौ छलिया है बालम नज़र ना आए रे
ओ रे कान्हा याद तेरी....
सांझ ढले मैं पानी भरने पनघट की राह चली हूं
भरी गगरिया सिर पे धर के अब सोचन में पडी हूं
कब तू पीछे से कंकरिया मारे, गगरी छलकाए रे
ओ रे कान्हा याद तेरी....
फागुन आयो बरसाने में उडौ है अबीर गुलाल
प्रेमरंग से रंग डारे तूने सब सखियन के गाल
इक मेरो संग छोड सब संग रास रचाए रे
ओ रे कान्हा याद तेरी ....
सावन में हरी कदम्ब पे झूला झूल पडे है
सब सखियां मिल झूलें प्रीतम भी पास खडे हैं
तू काहे मोहे प्रेम हिंडोला ना झुलवाए रे
ओ रे कान्हा याद तेरी....
तेरी बंसी की तान बिना तरसे मेरे प्रान
तुझ बिन बैरी सा लागे मोहे सकल जहान
बिन तेरे सुन साजन मेरे मोहे जग ना भाए रे
ओ रे कान्हा याद तेरी....
1 टिप्पणी:
विरह की अग्नि को दर्शाती इस कविता ने दिल छू लिया |
धन्यवाद |
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